Thursday 24 July 2014

वास्तु शास्त्र एवं वास्तुदेव की विशेषताएँ – भाग-6



वास्तु शास्त्र एवं वास्तुदेव की विशेषताएँ भाग-6

26-बच्चों के कमरे की सही स्थिति
27-वास्तुशास्त्र में दिशाओं का महत्व
28-भवन के सम्बन्ध में वास्तु शास्त्र के महत्वपूर्ण नियम
29-बहुमंजिला भवन या एपार्टमेंट (फ्लेट) निर्माण में वास्तुशास्त्र के महत्वपूर्ण नियम
30-पिरामिड एवं पिरामिड आकार की वस्तुएं व् भवनों का वास्तु शास्त्र में महत्व
31- दिशाओं के दोष को दूर करने का सबसे आसान तरीका है- मंत्र जप
32-फेंगशुई क्या है
  



26-बच्चों के कमरे की सही स्थिति-

·        बच्चों के कमरे का प्रवेश द्वार उत्तर अथवा पूर्व दिशा में होना चाहिए।
·        खिड़की अथवा रोशनदान पूर्व में रखना उत्तम है।

·        पढ़ने की टेबल का मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए।

·        पुस्तकें ईशान कोण में रखी जा सकती हैं।

·        बच्चों का मुख पढ़ते समय उत्तर अथवा पूर्व दिशा में होना चाहिए।
एक छोटा-सा पूजा स्थल अथवा मंदिर बच्चों के कमरे की ईशान दिशा में बनाना उत्तम है। इस स्थान में विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की मूर्ति अथवा तस्वीर लगाना शुभ है।
कमरे का ईशान कोण का क्षेत्र सदैव स्वच्छ रहना चाहिए और वहां पर किसी भी प्रकार का व्यर्थ का सामान, कूड़ा, कबाड़ा नहीं होना चाहिए।

·        अलमारी, कपबोर्ड़, पढ़ने का डेस्क और बुक शेल्फ व्यवस्थित ढंग से रखा जाना चाहिए।


·        सोने का बिस्तर नैऋत्य कोण में होना चाहिए। सोते समय सिर दक्षिण दिशा में हो तो उत्तम है, परंतु बालक अपना सिर पूर्व दिशा में भी रख कर सो सकते हैं। कमरे के मध्य में भारी सामान न रखें।

·        कमरे में हरे रंग के हलके शेड्स करवाना उत्तम है, इससे बच्चों में बुद्धिमता की वृद्धि होती है। कमरे के मध्य का स्थान बच्चों के खेलने के लिए खाली रखें।
27-वास्तुशास्त्र में दिशाओं का महत्व :-

·        पश्चिम दिशा का स्वामी वरूण देव हैं.भवन बनाते समय इस दिशा को रिक्त नहीं रखना चाहिए.

·        इस दिशा में भारी निर्माण शुभ होता है.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर गृहस्थ जीवन में सुख की कमी आती है.पति पत्नी के बीच मधुर सम्बन्ध का अभाव रहता है.कारोबार में साझेदारों से मनमुटाव रहता है.
·        यह दिशा वास्तुशास्त्र की दृष्टि से शुभ होने पर मान सम्मान, प्रतिष्ठा, सुख और समृद्धि कारक होता है.पारिवारिक जीवन मधुर रहता है.
वास्तुशास्त्र में वायव्य दिशा-

·        वायव्य दिशा उत्तर पश्चिम के मध्य को कहा जाता है.वायु देव इस दिशा के स्वामी हैं.
·        वास्तु की दृष्टि से यह दिशा दोष मुक्त होने पर व्यक्ति के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है.लोगों से सहयोग एवं प्रेम और आदर सम्मान प्राप्त होता है.
·        इसके विपरीत वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी आती है.लोगो से अच्छे सम्बन्ध नहीं रहते और अदालती मामलों में भी उलझना पड़ता है.

वास्तुशास्त्र में उत्तर दिशा-

·        वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा के समान उत्तर दिशा को रिक्त और भार रहित रखना शुभ माना जाता है.इस दिशा के स्वामी कुबेर हैं जो देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं.
·        यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर घर में धन एवं वैभव में वृद्धि होती है.घर में सुख का निवास होता है.
·        उत्तर दिशा वास्तु से पीड़ित होने पर आर्थिक पक्ष कमज़ोर होता है.आमदनी की अपेक्षा खर्च की अधिकता रहती है.परिवार में प्रेम एवं सहयोग का अभाव रहता है.
वास्तुशास्त्र में ईशान दिशा-
·        उत्तर और पूर्व दिशा का मध्य ईशान कहलाता है.इस दिशा के स्वामी ब्रह्मा और शिव जी हैं.घर के दरवाजे और खिड़कियां इस दिशा में अत्यंत शुभ माने जाते हैं.
·        यह दिशा वास्तुदोष से पीड़ित होने पर मन और बुद्धि पर विपरीत प्रभाव होता है.परेशानी और तंगी बनी रहती है.संतान के लिए भी यह दोष अच्छा नहीं होता.यह दिशा वास्तुदोष से मुक्त होने से मानसिक क्षमताओं पर अनुकूल प्रभाव होता है.शांति और समृद्धि का वास होता है.संतान के सम्बन्ध में शुभ परिणाम प्राप्त होता है.

वास्तुशास्त्र में आकाश -
·        वास्तुशास्त्र के अनुसार भगवान शिव आकाश के स्वामी हैं.इसके अन्तर्गत भवन के आस पास की वस्तु जैसे वृक्ष, भवन, खम्भा, मंदिर आदि की छाया का मकान और उसमें रहने वाले लोगों के ऊपर उसके प्रभाव का विचार किया जाता है.

वास्तुशास्त्र में पाताल-
·        वास्तु के अनुसार भवन के नीचे दबी हुई वस्तुओं का प्रभाव भी भवन और उसमें रहने वाले लोगों के ऊपर होता है.यह प्रभाव आमतौर पर दो मंजिल से तीन मंजिल तक बना रहता है.भवन निर्माण से पहले भूमि की जांच इसलिए काफी जरूरी हो जाता है.वास्तुशास्त्र के अनुसार इस दोष की स्थिति में भवन में रहने वाले का मन अशांत और व्याकुल रहता है.आर्थिक परेशानी का सामना करना होता है.अशुभ स्वप्न आते हैं एवं परिवार में कलह जन्य स्थिति बनी रहती है।
28-भवन के सम्बन्ध में वास्तु शास्त्र के  महत्वपूर्ण  नियम :
·        मकान में उत्तर पूर्व का कोना हमेशा खुला एवं साफ सुथरा होना चाहिए |
·        भवन या मकान की ऊंचाई हमेशा दक्षिण पश्चिम कोने की अधिक होनी चाहिए तथा भारी निर्माणहोना चाहिए |
·        आपके मकान का मुख्य द्वार किसी दूसरे के मुख्य द्वार के सामने नहीं होना चाहिए |
·        मकान में रसोई एवं स्नानागार या टॉयलेट एक साथ नहीं होने चाहिए या उनकी दीवार एक नहीं होनी चाहिए |
·        मकान में उत्तर पूर्व का कोना ढालू होना चाहिए एवं ड्रेनेज के पानी का बहाव भी उत्तर-पूर्व कोने कीतरफ होना चाहिए |
·        भवन में दरवाजे हमेशा भवन के अन्दर की  तरफ खुलने चाहिए |
·        भवन में  भूमि  तल  की मंजिल पर दरवाजे एवं खिड़कियों  की संख्या ऊपरी मंजिलों से ज्यादा होनी
चाहिए |
·        भवन में शौचालय के अन्दर सीट उत्तर -दक्षिण दिशा में देखते हुए लगानी चाहिए |
·        रसोई घर में रसोई बनाने वाले का मुंह हमेशा पूर्व दिशा में होना चाहिए |
·        भवन के मध्य भाग में किसी भी प्रकार का निर्माण नहीं होना चाहिए, मध्य भाग को यातो खुला रखें या
·        फिर वहां पर हाल का निर्माण करें तथा साफ सुथरा रखें  क्योंकि मध्य भाग ब्रह्म स्थान होता है |
·        बाथरूम (स्नानागार) में वाश बेसिन (हाथ धोने का स्थान) को ईशान कोण या पूर्व दिशा में लगाना चाहिए |
·        बाथरूम (स्नानागार) में गीजर आदि को अग्निकोण में लगाना चाहिए |
·        मकान में या बाथरूम में शीशा या दर्पण हमेशा पूर्व या ऊतर दिशा की दीवार में ही लगाना चाहिए |
·        पूजा कक्ष को सीढ़ियों के नीचे कभी नहीं बनाना चाहिए |
·        ड्राइंग रूम में प्रवेश द्वार के सामने वाली दीवार पर कोई अच्छी सीनरी या प्राकृतिक चित्र या कोई प्रतीक चिन्ह आदि लगाना चाहिए , इस दीवार को खाली नहीं छोड़ना चाहिए |
·        ड्राइंग रूम में कपडे आदि टांगने की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए |
·        घर के अन्दर फालतू  एवं रद्दी सामान को नहीं रखना चाहिए |
·        घर के अन्दर कांटे वाले पौधे  नहीं लगाने चाहिए |
·        मकान में हवा एवं प्रकाश के लिए खिड़कियाँ  एवं खुला स्थान होना चाहिए |
·        भवन में चारों तरफ खुला स्थान छोड़ना चाहिए तथा पूर्व एवं उत्तर की और पेड़ व् पौधे होने चाहिए |
·        घर को हमेशा साफ सुथरा रखना चाहिए |
29-बहुमंजिला भवन या एपार्टमेंट (फ्लेट) निर्माण में वास्तुशास्त्र के महत्वपूर्ण नियम :-
·        बहुमंजिला भवन या एपार्टमेंट बनाने के लिए भूखंड चोकोर या आयताकार होना चाहिए |
·        एपार्टमेंट के चारों तरफ खुली जगह होनी चाहिए |
·        भूखंड में पानी का बहाव पूर्व उत्तर कोने की तरफ होना चाहिए |
·        एपार्टमेंट के  भवन का ढाल उत्तर-पूर्व कोने की तरफ होना शुभ रहता है |
·        एपार्टमेंट के भूखंड में दक्षिण पश्चिम की तरफ खुला कम स्थान छोड़ना चाहिए |
·        एपार्टमेंट के भवन में प्रथम तल की ऊंचाई बाकी ऊपर की मंजिलों की ऊंचाई से ज्यादा होनी चाहिए |
·        एपार्टमेंट में सभी फ्लैटों का निर्माण इस प्रकार से करना चाहिए जिससे सभी फ्लैटों को हवा व् प्रकाश पूर्ण रूप से मिल सके एवं फ्लैट के सभी कमरों में सूर्य की रोशनी पहुँच सके |
·        एपार्टमेंट में भवन की छत पर पानी का भंडारण दक्षिण पश्चिम क्षेत्र में या पश्चिम के भाग में करना चाहिए |
·        एपार्टमेंट में लिफ्ट का निर्माण दक्षिण पश्चिम के भाग में या दक्षिण दिशा में करना चाहिए |
·        एपार्टमेंट में बिजली का बोर्ड , ट्रांसफोर्मर , जनरेटर आदि का स्थान दक्षिण-पूर्व के क्षेत्र या भाग में
निश्चित करना चाहिए |
·        एपार्टमेंट में दक्षिण पश्चिम के भाग में दीवारें भारी व् ऊंची रखनी चाहिए |
·        एपार्टमेंट में फ्लैटों का निर्माण इस प्रकार से करना चाहिए की उसमें रसोई का निर्माण  सभी फ्लैटों में
o   आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व ) में हो सके , विशेष परिस्थिति में दक्षिण दिशा में रसोई का निर्माण कर
o   सकते हैं मगर उसमें प्लेटफोर्म का निर्माण इस प्रकार से करना चाहिए की रसोई बनाने वाले का मुंह
o   पूर्व दिशा की तरफ हो सके , ये वास्तु के लिए शुभ रहता है |
·        फ्लैटों में शौचालय का स्थान उत्तर-पूर्व के भाग में नहीं करना चाहिए |
·        फ्लैटों में उत्तर व् पूर्व की दिशा में खिड़कियाँ अधिक बनानी चाहिए |
·        एपार्टमेंट के प्रत्येक फ्लैट की स्थिति ऐसी होनी चाहिए की आपात स्थिति में आसानी से पहुंचा जा सके| एवं मदद पहुंचाई जा सके |
·        एपार्टमेंट या बहुमंजिलों के भवनों को ६० फीट की कम रोड पर नहीं बनाना चाहिए |
·        प्रत्येक एपार्टमेंट में बाहर की तरफ आपात सीढियां अवश्य बनानी चाहिए |
·        प्रत्येक एपार्टमेंट में भूमिगत जल भण्डारण की सुविधा अवश्य रखनी चाहिए एवं ये स्थान उत्तर-पूर्व कोना या उत्तर दिशा के भाग में ही होना चाहिए |
·        एपार्टमेंट के प्रत्येक फ्लैट में वास्तु के नियमों का पालन करना बहुत कठिन होता है मगर कुछ
·        आवश्यक बिन्दुओं का ध्यान रखना जरूरी होता है जैसे की रसोई, हमेशा अग्नि कोण में होनी चाहिए
·        या दक्षिण भाग में अथवा  दक्षिण -पश्चिम भाग में भी रख सकते हैं , इसी प्रकार शौचालय या बाथरूम कभी भी ईशान कोण या अग्नि कोण के भाग में नहीं बनाना चाहिए |
·        एपार्टमेंट के सभी फ्लैटों में अलमारी एवं खिड़कियों की समुचित ब्यवस्था करनी चाहिए तथा हो सके
तो सभी कमरों में बालकोनी देनी चाहिए |
30-पिरामिड एवं पिरामिड आकार की वस्तुएं व् भवनों का वास्तु शास्त्र में महत्व:-
·        पौराणिक कथाओं , इजिप्त के पिरामिडों, तथा वैज्ञानिकों , वास्तुविदों ,व् लेखकों के अलग अलग मतों व् तर्कों के निचोड़ के अनुसार हम इस तथ्य पर पहुंचे हैं की पिरामिड के द्वारा हम ब्रम्हांड की ऊर्जा का संग्रह एवं उद्भव कर सकते हैं |
·        पिरामिड में उत्पन्न होने वाली शक्ति व् ऊर्जा विधुत जैसी अद्रश्य होती है , पिरामिड की कास्मेटिक एनर्जी (ब्रम्हांड ऊर्जा) में कई तरह की अलग अलग ऊर्जाओं  व्  शक्तियों का संयोजन  होता है |
·        डॉक्टर फ्लेनगन के अनुसार पिरामिड के विशेष आकार के अनुसार उसके पाँचों कोनों (चार बाजू के और एक छोटी का इस प्रकार पांच कोण ) में से एक प्रकार की सूक्ष्म किरणें उत्पन्न होकर एक ऊर्जा का निर्माण करती हैं |
·        ये ऊर्जा पिरामिड की १/३ ऊंचाई पर आने वाले किंग्स चेंबर नाम के विस्तार में घनीभूत होकर एक बिंदु (फोकल पॉइंट ) पर  यह ऊर्जा केन्द्रित होती है  तथा यहाँ पर अणुओं द्वारा अवशोषित होती है | इससे अणुओं में परमाणुओं द्वारा तेज स्पंदन होता है जिससे इसके इलेक्ट्रान अपनी कक्षा को तोड़कर बहार निकलते हैं जिससे प्रचंड ऊर्जा उत्पन्न होती है |
·        यह ऊर्जा पिरामिड के पंचों कोण से बहार निकलती है जिससे पिरामिड के आसपास का वातावरण ऊर्जा युक्त बन जाता है , ये ऊर्जा बहुत ही भव्य एवं दिव्य होती है जोकि मानवजाति के विकास के लिए महत्वपूर्ण है | इसी प्रकार से डाक्टर लेले के अनुसार पिरामिड विश्व के शाश्वत ज्ञान का जीवन एवं संयोजन हैं | पिरामिड के कोण शान्ति , गहनता, बुद्दिमता , सच्चाई व् आनंद के प्रतीक हैं |
·        इसके त्रिकोणीय भाग त्रिस्तरीय आत्मिक शक्ति के प्रतीक हैं | पिरामिड के पूर्व का भाग प्रकाश , रोशनी के प्रतीक , पश्चिम के भाग अन्धकार का प्रतीक , दक्षिण का भाग ठंडा  तथा उत्तर का भाग गरम के प्रतीक हैं अथवा दर्शाते हैं |
·        पिरामिड के द्वारा ऊर्जा के उच्चतम स्तर को प्राप्त करके शरीर में और पदार्थ में अंतरनिहित ऊर्जा को जाग्रत कर सकते हैं | इसके अन्दर बैठने से शान्ति एवं आनंद की अनुभूति होती है | इससे हम अपनी मानसिक शक्ति व् ऊर्जा में वृद्धि कर सकते हैं |
·        पिरामिड के आकार की पैकिंग डब्बे में खाने पीने की सामग्री लम्बे समय तक ख़राब नहीं होती है | पिरामिड के अन्दर रहने से या बैठने से रोगियों के कई प्रकार के रोग ठीक हो जाते हैं एवं उनके ठीक होने की प्रक्रिया तेज हो जाती है |
·        पिरामिड आकार के भवन में साधना करने से जल्दी ही सिद्धि प्राप्त होती है क्योंकि इसके अन्दर मन जल्दी से शांत एवं एकाग्रचित्त हो जाता है जिससे साधक जल्दी ही ध्यानावस्था में चला जाता है | पिरामिड आकार के पैकिंग या बर्तन में रखी सामग्री स्वादिस्ट एवं पौष्टिक होती है एवं स्वास्थय के लिए फायदेमंद रहती है | पिरामिड आकार की पैकिंग या बर्तन में रखे फल एवं फूल लम्बे समय तक ताजे रहते हैं | पिरामिड ब्रह्माण्ड से धनात्मक ऊर्जा को अवशोषित करता है | पिरामिड का वास्तुशास्त्र में बहुत ही अधिक महत्व है | पिरामिड के द्वारा वास्तु के कई दोषों को दूर किया जा सकता है |
·        पिरामिड को हमेशा विधुत एवं चुम्बक के लिए अवाहकजैसे पदार्थों से बनाना चाहिए | इसके लिए लकड़ी का उपयोग सबसे अच्छा रहता है | पिरामिड बनाने के लिए एक चोरस पेपर या हार्डबोर्ड का टुकड़ा लें जिसकी चरों भुजाओं की लम्बाई १० सेंटीमीटर हो  फिर उसको आमने सामने के कोण को जोड़ती हुई रेखा खींच कर उस रेखा पर होते हुए काट लें , इसमें चार त्रिकोण बन जाते हैं , प्रत्येक त्रिकोण के आधार की लम्बाई १० सेमी  तथा दोनों भुजाओं की लम्बाई ९.५ सेमी  यानि आधार से ५ प्रतिशत कम होनी चाहिए |
·        इस प्रकार से बने हुए चारों त्रिकोनों को जोड़ दें तो एक पिरामिड बनकर तैयार हो जाएगा | मार्केट में बने हुए पिरामिड मिल जाते हैं |
·        वास्तु दोषों को दूर करने के लिए भूखंड के आकार के अनुसार पिरामिडों की संख्या निश्चित की जाती है | भूखंड में उपयुक्त संख्या में पिरामिडों का इस्तेमाल करके कई प्रकार के वास्तु दोषों को दूर किया जा सकता है एवं उसके अच्छे परिणाम प्राप्त किये जासकते हैं |
31-दिशाओं के दोष को दूर करने का सबसे आसान तरीका है- मंत्र जप
आइये जाने की किस दिशा के लिए कोनसा मन्त्र हें लाभकारी----
यहां हम आठ मूलभूत दिशाओं और उनके महत्व के साथ-साथ प्रत्येक दिशा के उत्तम प्रयोग का वर्णन कर रहे हैं। चूंकि वास्तु का वैज्ञानिक आधार है, इसलिए यहां वर्णित दिशा-निर्देश पूर्णतः तर्क संगत हैं।
पूर्व- घर का पूर्व दिशा वास्तु दोष से पीड़ित है तो इसे दोष मुक्त करने के लिए प्रतिदिन सूर्य मंत्र 'ओम ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः' का जप करें। सूर्य इस दिशा के स्वामी हैं। इस मंत्र के जप से सूर्य के शुभ प्रभावों में वृद्घि होती है। व्यक्ति मान-सम्मान एवं यश प्राप्त करता है। इन्द्र पूर्व दिशा के देवता हैं। प्रतिदिन 108 बार इंद्र मंत्र 'ओम इन्द्राय नमः' का जप करना भी इस दिशा के दोष को दूर कर देता है।
इस दिशा के प्रतिनिधि देवता सूर्य हैं। सूर्य पूर्व से ही उदित होता है। यह दिशा शुभारंभ की दिशा है। भवन के मुखय द्वार को इसी दिद्गाा में बनाने का सुझाव दिया जाता है। इसके पीछे दो तर्क हैं। पहला- दिशा के देवता सूर्य को सत्कार देना और दूसरा वैज्ञानिक तर्क यह है कि पूर्व में मुखय द्वार होने से सूर्य की रोशनी व हवा की उपलब्धता भवन में पर्याप्त मात्रा में रहती है। सुबह के सूरज की पैरा बैंगनी किरणें रात्रि के समय उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को खत्म करके घर को ऊर्जावान बनाएं रखती हैं।

उत्तर- यह दिशा के देवता धन के स्वामी कुबेर हैं। यह दिशा बुध ग्रह के प्रभाव में आता है। इस दिशा के दूषित होने पर माता एवं घर में रहने वाले स्त्रियों को कष्ट होता है। आर्थिक कठिनाईयों का भी सामना करना होता है। इस दिशा को वास्तु दोष से मुक्त करने के लिए 'ओम बुधाय नमः या 'ओम कुबेराय नमः' मंत्र का जप करें। आर्थिक समस्याओं में कुबेर मंत्र का जप अधिक लाभकारी होता है।
इस दिशा के प्रतिनिधि देव धन के स्वामी कुबेर हैं। यह दिशा ध्रूव तारे की भी है। आकाश में उत्तर दिशा में स्थित धू्रव तारा स्थायित्व व सुरक्षा का प्रतीक है। यही वजह है कि इस दिशा को समस्त आर्थिक कार्यों के निमित्त उत्तम माना जाता है। भवन का प्रवेश द्वार या लिविंग रूम/ बैठक इसी भाग में बनाने का सुझाव दिया जाता है। भवन के उत्तरी भाग को खुला भी रखा जाता है। चूंकि भारत उत्तरी अक्षांश पर स्थित है, इसीलिए उत्तरी भाग अधिक प्रकाशमान रहता है। यही वजह है कि उत्तरी भाग को खुला रखने का सुझाव दिया जाता है, जिससे इस स्थान से घर में प्रवेश करने वाला प्रकाश बाधित न हो।

उत्तर-पूर्व (ईशान कोण)-
इस दिशा के स्वामी बृहस्पति हैं। और देवता हैं भगवान शिव। इस दिशा के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए नियमित गुरू मंत्र 'ओम बृं बृहस्पतये नमः' मंत्र का जप करें। शिव पंचाक्षरी मंत्र ओम नमः शिवाय का 108 बार जप करना भी लाभप्रद होता है।धन लाभ, संतान व शुभ फल देने वाला होता है घर का ये हिस्सा ईशान (उत्तर-पूर्व) दिशा के स्वामी भगवान रुद्र (शिव) तथा प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति हैं। भूखण्ड के ईशान दिशा में मार्ग हो तो भवन ईशानमुखी अर्थात ईशान्यभिमुख होता है। इस प्रकार के भूखण्ड बुद्धिमान संतान तथा शुभ फल देने वाला होता है।
ईशान मुखी भूखण्ड पर निर्माण करते समय निम्न वास्तु सिद्धांतों का पालन करना चाहिए-
1- ईशानमुखी भूखण्ड ऐश्वर्य, लाभ, वंश वृद्धि, बुद्धिमान संतान व शुभ फल देने वाला है। ऐसे भूखण्ड पर निर्माण करते समय ध्यान रखें कि ईशान
कोण कटा व ढका हुआ न हो। प्रयास करें कि प्रत्येक कक्ष में ईशान कोण न घटे।
2- ईशानमुखी भवन में ईशान कोण सदैव नीचा रहना चाहिए। ऐसा करने से सुख-सम्पन्नता व ऐश्वर्य लाभ होगा।
3- ईशान कोण बंद न करें न कोई भारी वस्तु रखें। ईशान मुखी भूखण्ड में आगे का भाग खाली रखें तो शुभ रहेगा।
4- भवन के चारों ओर की दीवार बनाएं तो ईशान दिशा या पूर्व, उत्तर की ओर ऊंची न रखें।
5- ईशान के हिस्से को साफ रखें, यहां कूड़ा-कचरा, गंदगी आदि न डालें। झाड़ू भी न रखें।
6- ईशान मुखी भूखण्ड के सम्मुख नदी, नाला, तालाब, नहर तथा कुआं होना सुख, सम्पत्ति का प्रतीक है।
7- ईशान कोण में रसोई घर न रखें वरना घर में अशांति, कलह व धन हानि होने की संभावना रहती है।
8- घर का जल ईशान दिशा से बाहर निकालें। फर्श का ढलाव भी ईशान कोण की ओर रखें।
यह दिशा बाकी सभी दिशाओं में सर्वोत्तम दिशा मानी जाती है। उत्तर व पूर्व दिशाओं के संगम स्थल पर बनने वाला कोण ईशान कोण है। इस दिशा में कूड़ा-कचरा या शौचालय इत्यादि नहीं होना चाहिए। ईशान कोण को खुला रखना चाहिए या इस भाग पर जल स्रोत बनाया जा सकता है। उत्तर-पूर्व दोनों दिशाओं का समग्र प्रभाव ईशान कोण पर पडता है। पूर्व दिशा के प्रभाव से ईद्गाान कोण सुबह के सूरज की रोद्गानी से प्रकाशमान होता है, तो उत्तर दिशा के कारण इस स्थान पर लंबी अवधि तक प्रकाश की किरणें पड ती हैं। ईशान कोण में जल स्रोत बनाया जाए तो सुबह के सूर्य कि पैरा-बैंगनी किरणें उसे स्वच्छ कर देती हैं।

पश्चिम - यह शनि की दिशा है। इस दिशा के देवता वरूण देव हैं। इस दिशा में किचन कभी भी नहीं बनाना चाहिए। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर शनि मंत्र 'ओम शं शनैश्चराय नमः' का नियमित जप करें। यह मंत्र शनि के कुप्रभाव को भी दूर कर देता है।
यह दिशा जल के देवता वरुण की है। सूर्य जब अस्त होता है, तो अंधेरा हमें जीवन और मृत्यु के चक्कर का एहसास कराता है। यह बताता है कि जहां आरंभ है, वहां अंत भी है। शाम के तपते सूरज और इसकी इंफ्रा रेड किरणों का सीधा प्रभाव पश्चिमी भाग पर पड ता है, जिससे यह अधिक गरम हो जाता है। यही वजह है कि इस दिद्गाा को द्गायन के लिए उचित नहीं माना जाता। इस दिशा में शौचालय, बाथरूम, सीढियों अथवा स्टोर रूम का निर्माण किया जा सकता है। इस भाग में पेड -पौधे भी लगाए जा सकते हैं।

उत्तर- पश्चिम (वायव्य कोण)- चन्द्रा इस दिशा के स्वामी ग्रह हैं। यह दिशा दोषपूर्ण होने पर मन चंचल रहता है। घर में रहने वाले लोग सर्दी जुकाम एवं छाती से संबंधित रोग से परेशान होते हैं। इस दिशा के दोष को दूर करने के लिए चन्द्र मंत्र 'ओम चन्द्रमसे नमः' का जप लाभकारी होता है।
यह दिशा वायु देवता की है। उत्तर- पश्चिम भाग भी संध्या के सूर्य की तपती रोशनी से प्रभावित रहता है। इसलिए इस स्थान को भी शौचालय, स्टोर रूम, स्नान घर आदी के लिए उपयुक्त बताया गया है। उत्तर-पद्गिचम में शौचालय, स्नानघर का निर्माण करने से भवन के अन्य हिस्से संध्या के सूर्य की उष्मा से बचे रहते हैं, जबकि यह उष्मा द्गाौचालय एवं स्नानघर को स्वच्छ एवं सूखा रखने में सहायक होती है।

दक्षिण- इस दिशा के स्वामी ग्रह मंगल और देवता यम हैं। दक्षिण दिशा से वास्तु दोष दूर करने के लिए नियमित 'ओम अं अंगारकाय नमः' मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए। यह मंत्र मंगल के कुप्रभाव को भी दूर कर देता है। 'ओम यमाय नमः' मंत्र से भी इस दिशा का दोष समाप्त हो जाता है।
यह दिशा मृत्यु के देवता यमराज की है। दक्षिण दिशा का संबंध हमारे भूतकाल और पितरों से भी है। इस दिशा में अतिथि कक्ष या बच्चों के लिए शयन कक्ष बनाया जा सकता है। दक्षिण दिशा में बॉलकनी या बगीचे जैसे खुले स्थान नहीं होने चाहिएं। इस स्थान को खुला न छोड़ने से यह रात्रि के समय न अधिक गरम रहता है और न ज्यादा ठंडा। लिहाजा यह भाग शयन कक्ष के लिए उत्तम होता है।

दक्षिण- पश्चिम (नैऋत्य कोण)- इस दिशा के स्वामी राहु ग्रह हैं। घर में यह दिशा दोषपूर्ण हो और कुण्डली में राहु अशुभ बैठा हो तो राहु की दशा व्यक्ति के लिए काफी कष्टकारी हो जाती है। इस दोष को दूर करने के लिए राहु मंत्र 'ओम रां राहवे नमः' मंत्र का जप करें। इससे वास्तु दोष एवं राहु का उपचार भी उपचार हो जाता है।

यह दिशा नैऋुती अर्थात स्थिर लक्ष्मी (धन की देवी) की है। इस दिद्गाा में आलमारी, तिजोरी या गृहस्वामी का शयन कक्ष बनाना चाहिए। चूंकि इस दिशा में दक्षिण व पश्चिम दिशाओं का मिलन होता है, इसलिए यह दिशा वेंटिलेशन के लिए बेहतर होती है। यही कारण है कि इस दिशा में गृह स्वामी का द्गायन कक्ष बनाने का सुझाव दिया जाता है। तिजोरी या आलमारी को इस हिस्से की पश्चिमी दीवार में स्थापित करें।

दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण)- इस दिशा के स्वामी ग्रह शुक्र और देवता अग्नि हैं। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर शुक्र अथवा अग्नि के मंत्र का जप लाभप्रद होता है। शुक्र का मंत्र है 'ओम शुं शुक्राय नमः'। अग्नि का मंत्र है 'ओम अग्नेय नमः'। इस दिशा को दोष से मुक्त रखने के लिए इस दिशा में पानी का टैंक, नल, शौचालय अथवा अध्ययन कक्ष नहीं होना चाहिए।
इस दिशा के प्रतिनिध देव अग्नि हैं। यह दिशा उष्‍मा, जीवनशक्ति और ऊर्जा की दिशा है। रसोईघर के लिए यह दिशा सर्वोत्तम होती है। सुबह के सूरज की पैराबैंगनी किरणों का प्रत्यक्ष प्रभाव पडने के कारण रसोईघर मक्खी-मच्छर आदी जीवाणुओं से मुक्त रहता है। वहीं दक्षिण- पश्चिम यानी वायु की प्रतिनिधि दिशा भी रसोईघर में जलने वाली अग्नि को क्षीण नहीं कर पाती।

32-फेंगशुई क्या है

चीन में जो वास्तु शास्त्र की पद्धति विकसित हुई उसे फेंगशुई कहा जाता है | फेंगशुई चीनी भाषा के दो शब्द फेंग और शुई से मिलकर बना है | जिसमे फेंग का अर्थ है "जल" और शुई का अर्थ है "वायु"  |
फेंगशुई में "ची" की महत्ता है |
ची वह अदृश्य शक्ति है जो सभी निर्जीव और सजीव पदार्थों में पाई जाती है | निर्जीव पदार्थों में यह उस पदार्थ विशेष का निर्माण करती है | जबकि सजीव पदार्थों में यह प्राणऊर्जा के रूप में होती है | ची निराकार है अदृश्य है परन्तु अदभुत है |
यिन-यांग क्या है ?
प्रतिकूल और अनुकूल शक्तियां एकसाथ मिलकर उर्जाओं का निर्माण करती हैं | यिन और यांग ऐसी दो विरोधी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो अपनी निरंतर क्रियाओं से एक-दूसरे पर हावी होने का प्रयास करती हैं , जहाँ एक हावी हो जाती है, वहां असंतुलन हो जाता है | कोई एक ही वस्तु यिन भी हो सकती है और यांग भी
फेंगशुई द्वारा भाग्य चमकाने के लिए निम्न उपाय करें |
1. भवन के प्रवेश द्वार के सामने कोई वृक्ष , विधुत का खम्बा , सामने के भवन का कोना या खंडहर आदि नहीं होना चाहिए | ये सारे अवरोध ची के प्रवाह को प्रभावित करते हैं |
2. भवन के मुख्य द्वार का दरवाज़ा आवाज़ करते हुए नहीं खुलना चाहिए |
3. भवन का प्रवेश द्वार बहार की ओर खुलना चाहिए | अन्दर की ओर खुलने वाले दरवाज़े फेंगशुई के अनुसार समृद्धि नहीं लाते हैं |
4. भवन के अन्य कक्षों की तुलना में रसोईघर ,स्नानघर , शौचालय, प्रसाधन कक्ष के दरवाजे बड़े नहीं होने चाहिए |
यदि बड़े हैं तो तो भवन के निवासी अत्यधिक व्यय से परेशान रहेंगे |
5. खिडकियों के दरवाजे बाहर की ओर खुलने चाहिए, इससे ची का प्रवाह अधिक होता है | और भवन में रहेने वाले व्यक्ति धनी हो जाते हैं |
6. भवन में मुख्य प्रवेश द्वार के अतिरिक्त अन्य द्वारों की संख्या सम होनी चाहिए |
7. अनुपयोगी वस्तुओं को जमा करके न रखें |
8. रसोई में शयनकक्ष का दरवाज़ा सीधे रूप में नहीं खुलना चाहिए |
9. एक सीधी लाइन में तीन या तीन से अधिक दरवाजे नहीं होने चाहिए |
10.. गमले तथा जानवरों की मूर्तियाँ घर में ची के प्रवेश को बढावा देती हैं |
11. शौचालय जितना नज़रों से ओझल रहेगा उतना ही अच्छा रहेगा |
12. हँसते हुए बुद्ध की मूर्ति घर में स्थापित करें |
13. भवन के मुख्य द्वार के ऊपर स्वस्तिक और ॐ के चिन्ह लगायें |
14. दरवाज़े के आगे पीछे या ऊपर कैलेन्डर नहीं लगाना चाहिए | खासकर दरवाज़े के ऊपर तो बिलकुल नहीं |
15. घर में प्रतिदिन नमक मिले पानी से पोंछा लगाना शुभ होता है |
16. घर के मुख्य द्वार के अन्दर के हैंडल में तीन चीनी सिक्के लाल धागे में लटकाने से शुभ होता है | 
17. ऑफिस में बैठने के स्थान के पीछे पर्वत का चित्र लगायें |
18. उन्नति के लिए उत्तर दिशा में धातु का कछुआ रखें |
19. घर में जो भी फर्नीचर हो उनके कोने गोल करवा दें |
20. ज्ञान वृद्धि के लिए उत्तर-पूर्व दिशा में ग्लोब रखना चाहिए |
21. घर के मुखिया का चित्र दक्षिण में लगायें, उन्नति होगी |
22. पुत्र या पुत्री की विवाह के लिए नैश्रत्य कोण में उनका कमरा रखें , विवाह शीघ्र हो जायेगा |
23. अपनी दुकान में कैश काउंटर के पीछे दर्पण लगाकर अधिक लाभ कमा सकते हैं |
24. यदि माकन के सामने शमशान ,अस्पताल या कब्रिस्तान हो तो इस दोष को दूर करने के लिए घर के किसी कोने में एक जीरो वाट का बल्ब हमेशा जलते रहना चाहिए ये बल्ब पूजागृह में जले तो ज्यादा अच्छा हो |
25. घर में जल का स्त्रोत उत्तर या उत्तर-पश्चिम में ही रखें | 
कदापि न करें
26. उत्तर-पूर्व दिशा मे शौचालय तथा रसोईघर का निर्माण कदापि न करें| 
27. दक्षिण-पूर्व दिशा में जल संग्रहण,ओवरहैड टैंक का निर्माण कदापि न करें| 
28. पूर्व दिशा में भारी सामान कदापि न करें| 
29. उत्तर-पूर्व दिशा मे. जल सग्रहण, मन्दिर का निर्माण, टैंक निर्माण सदैव करें|
30. दक्षिण पूर्व दिशा में रसोईघर, बिजली उपकरण आदि रखें सदैव करें|
31. सीढियां पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण की ओर चढ्ती हुईं सदैव करें|

उपर्युक्त विवेचन केवल वास्तु के सामान्य नियमों की जानकारी प्रदान करता है, वास्तु विज्ञान तो समुद्र के समान है। लेकिन,इतनी जानकारी भी कम नहीं है।


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